कल तक मैं एक भिखारी था. कड़वा सच ...... सत्य कहने से अभी तक डरा नहीं है / घाव गहरा है अभी तक भरा नहीं है/* लाख पैरों तले कुचला गया "अंकुर" ज़माने के सत्य से जन्मा है, इसलिए मरा नहीं है // */ ……………….
“इस रचना पर मुझे ५ जनबरी १९९२ को बाल्कान जी बारी इंटरनेश्नल संस्था नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय राजीव गाँधी युवा कवि पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.”
प्रस्तुत है पूरी रचना……………….
कल तक मैं एक भिखारी था.
भूख से पीड़ित, जूठन को लाचार.
न घर न द्वार, केवल एक कुटिया,
जिसमे घास का बिछौना, अम्बर की चादर,
अहंकार की तिजौरी, जो की-
छल-कपट-नीचता-निकृष्ट विचारों से,
लवालाव भरी थी.
स्वार्थ के ताले से पूर्ण सुरक्षित,
इस अपार संपत्ति का मैं स्वामी था.
याचना का समर्थक, अवनति पथगामी.
परन्तु आज एक पुजारी हूँ.
सच्चा पुजारी!
प्रतिभा संपन्न त्यागी हूँ.
तन पर त्याग की उजली चादर,
मन में उज्जवल प्रतिमा है.
क्षमा- दया – करुना – अरु ममता,
स्वार्थ- हीनता, अरु निश्छलता,
ये नैवेद्य ह्रदय के तम को,
हर लेते दीपार्ची सहस नित.
अवनति पर उन्नति का घर है.
ये नैवेद्य समस्त तत्व ही बने,
प्रगति आधार निरंतर.
उर में बौओ बीज प्रेम के,
छोडो लालच और दुराशा.
चिंताओं से मुक्त,
ज्ञान की प्रखर रश्मियों से,
उर भर लो.
द्रनता का अवलम्ब ग्रहण कर,
मानवता के बनो पुजारी.
पर को स्व पर रोपित करके,
हरो दूसरों के दुःख भारी.
तभी उन्नति के उच्च शिखर,
समरुन्द यह संसृति होगी…
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