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धरती की आँख नम है…

कड़वा सच ......
कड़वा सच ......
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धरती की आँख शोक से संतप्त हो गई।

तलवार तेरी खून से जब तृप्त हो

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 घृणा के बीज वो दी अवनि की कोख में,

लगता है की इंसानियत भी सख्त हो गई।

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 धरती के लाल वो रहे फसलें विनाश की,

पावस तेरी करतूत से ही लुप्त हो गई।

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 विज्ञान की देकर दुहाई खुद को क्योँ कोसता,

अच्छे-बुरे की सोच तेरी सुप्त हो गई।

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 झूठ का बोलबाला है धोका है हर तरफ,

सच्चाई यहाँ हार के अब पस्त हो गई।

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 आती नहीं है मौत भी मांगे से दोस्तों,

निर्धन की जिंदगी भी कमबख्त हो

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 “अंकुर” ने जब भी प्रेम की आवाज़ उठाई,

आवाज़ उसकी सींखचों में जप्त हो गई.

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